फिलिस्तीन

आज अमावस की इस स्याह रात में
एक- एक करके बारी- बारी से
मैंने कई दीये जलाये
और उन जलते दीये से अपने घर के हर कोने को रोशन किया
अमावस के अंधियारे के खिलाफ़ मैंने शंखनाद किया
आज अमावस की काली रात में
मैंने एक दीया अपने पुरखों के नाम
एक दीया अपने गांव की लोक- देवी के नाम
एक दीया भगवान बिरसा मुंडा के लिए
एक दीया सोन के लिए
एक दीया इनार के लिए
एक दीया विंध्य पहाड़ के लिए
और अपने घर के हर कोने के लिए
आंगन के लिए, देहरी के लिए एक- एक दीये जलाया
एक दीया फिलिस्तीनी बच्चे
और उनकी मांओं के लिए भी जलाया मैंने
जिनकी ज़िंदगी में आज मिसाइलों की बारुदी धुंध के सिवा
और कुछ भी नहीं
भूख, प्यास और अकाल मौत के भयावह काले साये के सिवा
और कुछ भी नहीं
मैंने देवी- देवताओं से प्रार्थना की
मैंने आकाश से प्रार्थना की, यह गुज़ारिश की
कि वो हवा में उड़ते मिसाइलों को
भूमध्यसागर की ओर मोड़ दे
फिलिस्तीनी बच्चों को
उनकी मां की गोद में बख़्श दे
मैंने देवी- देवताओं से प्रार्थना की
सभी पीर- औलिया से दुआ मांगी
कि फिलिस्तीनी बच्चे
मां की गोद में लेटकर लोरियां सुनें
वे भी अपने- अपने पिता के कंधे पर चढ़कर- बैठकर मेला घूमें
और फिलिस्तीन की सरज़मीं पर आकाश से बरसती चांदनी में
तमाम युवक- युवतियां अपने- अपने महबूब को मस्ती में चूमें
सभी बूढ़े- बुढ़िया भी शराब के चंद घूंट पीकर प्रेम के गीत गायें
वरना हमारा अकेले हँसना क्या, अकेले चहकना क्या
जब पड़ोस में अंधकार हो, तो मेरे घर में उजाले का क्या मायने
जब पड़ोस में रुदन हो, तो मेरी हँसी- खुशी के क्या मायने ?