सजा By स्मिता गुप्ता

ऑफिस में आज मेरा पहला दिन था । आज ही मैंने इस प्राइवेट कंपनी में जनरल मैनेजर के पद को संभाला है । इस ऑफिस में कार्यरत लोगों से मिलते हुए मेरी नजर अचानक ही विस्मय से फैल गई । कदम चलतेचलते एकदम से रुक गए ।

ये हैं आशीष, आशीष देव”

मैं सामान्य होती हुई ‘हैलो’ बोलकर आगे बढ़ गई । आशीष का चेहरा मेरे दिल और दिमाग पर छाने लगा था । मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था । घर जाने की जल्दी हो रही थी । मैं थोड़ी देर अकेली अपनी यादों के साथ बिताना चाहती थी । यही यादें तो मेरे जीवन में सब कुछ थी । अपनेपराए, रिश्ते – नाते, सब कुछ । जल्दीजल्दी ऑफिस के काम निपटाकर सफर के थकान का बहाना करके मैं घर के लिए चल पड़ी । कार से बाहर झांकती हुई मैं, इस दौरान शहर में हुए बदलावों को देखती रही ।

बरसों पहले इस शहर में रह चुकी हूं । पिछले 20 वर्षों से नौकरी के चक्कर में इस शहर से उस शहर में घूमते हुए आज पुण: इसी शहर में आ पहुंची हूं । कहते हैं दुनिया गोल है, इंसान जहां से चलता है घूम कर वहीं पहुंच जाता है । इसी शहर में मैंने जिंदगी की शुरुआत की थी, इसी शहर में अपना सब कुछ खोकर सिर्फ अपनी यादों को साथ लिए चल पड़ी थी । चलतेचलते फिर इसी शहर में वापस आ गई हूं ।

घर पहुंच कर मैं अपने बिस्तर पर लेटी रोती रही । जो यादें इतने वर्षों से धूमिल हो गई थी । अब वह सारी यादें आंसुओं में धूल कर साफ हो रही थी । बारबार मेरे कानों में गूंज रहे थे, “ये है आशीष, आशीष देव ।“ वही चेहरा, वही रंग, वही रूप, नाक, आंख, बाल, सब कुछ वैसा ही ।

मैं बचपन से ही हॉस्टल में रहकर पढी थी । जीवन के 18 सालों तक मैं अभाव, असफलता और समझौता जैसे शब्दों से परिचित न थी । 12वीं के बाद विश्वविद्यालय में नामांकन के साथी मेरी शादी कर दी गई । हॉस्टल में रहते हुए वैवाहिक जीवन को मैंने फिल्मों में ही देखा था । मेरे डॉक्टर पिता मां और मैं, उसके बाद मैं अपने परिवार के दूसरे सदस्यों से मिलने गांव कभी नहीं गई । जाने आने की असुविधा बिजली पानी की असुविधा हमेशा ही मुझे गांव जाने से रोकते थे । मातापिता की लाडली होने के कारण उन्होंने हमेशा ध्यान रखा कि मुझे कोई असुविधा न हो । दोस्तों के साथ घूमना फिरना, मस्ती करना बस मुझे यही काम आते थे । घर कैसे सजाते हैं, संभालते हैं, यह सब मुझे आता ही ना था । क्योंकि यह सब फिल्मों में नहीं दिखाया जाता है । मैं प्रतिदिन सजसवर कर अपने पति के साथ घूमने निकल जाती थी । हमेशा बाहर ही खाना खाने की मेरी चाहत को भी मेरे पति किसी तरह पूरा किया करते थे । कुछ दिन तो सब ठीक रहा सीमांत ने सोचा, नासमझी है धीरेधीरे समझ जाएगी । लेकिन मेरी ना समझी बढ़ती ही जा रही थी । मैं अपनी जिम्मेदारियों को समझने के लिए कतई भी तैयार न थी ।

मेरे पति सीमांत देव प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे । वह खर्च के साथ अपने भविष्य के लिए कुछ बचत भी करना चाहते थे । लेकिन मेरे खुले हाथों की वजह से वह आर्थिक तंगी से परेशान रहने लगे ।

मैं कहती “सीमांत आप मेरे पापा से कुछ पैसे ले लिया कीजिए, या मुझे कहिए मैं मांग लूंगी ।“

लेकिन सीमांत का स्वाभिमानी मन इसके लिए तैयार ना होता था ।

उनके ऑफिस से आते ही, “ मैंने कहा सीमांत आप जल्दी से सब्जी काट लीजिए मैं रोटी बनाती हूं हम लोग सिनेमा चल रहे हैं।“

नहीं अंजलि, मैं बहुत थक गया हूं ।“

तो कोई बात नहीं हाथ मुंह धो कर तैयार हो जाइए । हम लोग रात का खाना भी बाहर ही खाएंगे ।“

अब तुम बैचलर नहीं हो, तुम्हारी शादी हो चुकी है । तुम पत्नी हो, कुछ दिनों में मां बनोगी, तुम अपनी जिम्मेदारियों को कब तक समझोगी ।“

हम बाहर खा लेंगे तो इसमें जिम्मेदारियों को समझने, ना समझने, की कौन सी बात है ?”

ऐसी बहस अब आए दिन की नियति बन गई थी । सीमांत और अच्छा करने के लिए, ज्यादा पैसा कमाने के लिए अधिक से अधिक मेहनत करने लगे । प्रतिदिन की किचकिच से दूर रहने के लिए भी वह खुद को काम में व्यस्त रखने लगें । मुझ में अब भी परिवार की जिम्मेदारियों को समझने की समझ ना थी । इस नासमझी में मेरे मातापिता भी मेरा साथ दे रहे थे । अपने पिता की इकलौती बेटी होने से वहां की सब धन दौलत मेरी ही थी । अब पैसों की मेरी जरूरत की पूर्ति मेरे मायके से होने लगी । इस अजनबी शहर में अब मेरी जान पहचान बढ़ने लगी थी ।

अंजलि यह छोटीछोटी जरूरत के लिए तुम्हें अपने पापा से पैसे नहीं लेने चाहिए ।“

मेरे पापा हैं और यह पैसा भी मेरा है , मैं जब चाहे जैसे पैसे लूंगी और खर्च भी करूंगी ।“

अपने ऑफिस के काम की व्यवस्था में सीमांत मेरी फिजूल खर्ची और वक्त बेवक्त घूमने फिरने में साथ ना दे पाते थे । मैं जैसे तैसे खाना बना कर या बाहर से खाना मंगवा कर रख देती थी और अपने दोस्तों के साथ निकल पड़ती थी, पार्टी, सिनेमा । “ सभ्य घर की औरतें यू सारा सारा दिन और देर रात तक बाहर नहीं रहती है ।“

मेरे दोस्त ठीक कहते हैं, तुम पति बनकर मुझ पर हक चलाना चाहते हो । मैं एक पढ़ीलिखी लड़की हूं । मेरा भी अपना अस्तित्व है , मेरी दुनिया है, मेरे दोस्त है, तुम खुद तो कहीं घूमते फिरते नहीं हो, मैं घूमती फिरती हूं तो तुम्हें जलन होती है । मैं तुम्हारे पैसे खर्च नहीं करती हूं ।“

मै एक ही सांस में बोल गई ।

अंजलि ऐसी बातें मत सोचो । तुम्हारे यह दोस्त तुम्हारे आगे पीछे सिर्फ तुम्हारे पैसों से मौज करने के लिए करते हैं ।“

तुम कुछ मत बोलो,….. मेरे दोस्तों के बारे में…… “ मैं चीखी ।

अचानक ही मेरा सर चकराने लगा । डॉक्टर से चेकअप कराने पर डॉक्टर ने बताया कि मैं मां बनने वाली हूं । जिस तरह मेरा स्वाभिमान, मेरी नासमझी, मेरा घमंड, मेरी जीत, मुझ में स्त्रीत्व के गुण पर अपने नहीं दे रहे थे । उसी तरह मेरे अंदर मातृत्व भी पनपने को तैयार न था । जिस तरह मेरे मन में अपने पति के प्रति विश्वास, समर्पण, अपनत्व के भाव नहीं थे । ठीक वैसे ही मेरे अंदर इस अजन्में बच्चे के लिए कोई मोह, कोई लगाव के भाव जन्म नहीं ले रहे थे । बस था तो सिर्फ एक नशा, स्वतंत्र रहने का नशा ।

मैं अपने ही अंश को नष्ट करने के लिए व्याकुल हो उठी । सीमांत अभी भी मुझ पर विश्वास बनाए हुए थे । वे अभी भी मुझे धैर्य से समझ रहे थे ।

अंजलि एक औरत मां बनकर ही संपूर्ण कहलाती है । संसार का सब सुख मिलकर भी मां कहलाने के सुख की बराबरी नहीं कर सकते हैं ।“

लेकिन मैं जिद करके अपने पिता के घर आ गई । इस उम्मीद में कि वह एक डॉक्टर है और कोई ना कोई रास्ता निकाल लेंगे । इस बीच मेरी तबीयत बहुत बिगड़ चुकी थी । उस स्थिति में बच्चों को जन्म देने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता ना था । मेरे पति इस उम्मीद में मेरे पास आते जाते रहे कि शायद बच्चे का मोह मेरे स्वभाव को बदल दे । लेकिन बच्चे की किलकारियां भी मेरे पत्थर जैसे दिल को पिघला ना सका । एक मां अपने साथ हुए किसी हादसे का परिणाम अनचाहे बच्चों को भी अपनी छाती से लगा कर रखती है । लेकिन मैंने अपना फिगर बिगड़ने के ख्याल से बच्चे को दूध तक नहीं पिलाया । एक साल का था गोलू जब मैंने उसे आखिरी बार देखा था । एक साल तक मेरी मां ने ही उसे सीने से लगा कर रखा । मैं अपनी आजाद दुनिया में खोई रहती थी । मेरे पति अपनी छुट्टी के दिनों में सारा सारा दिन गोलू के साथ ही बिताते थे । लेकिन मेरे पास अपने बच्चे के लिए दिन का एक घंटा भी ना था । अब बच्चे को लेकर मेरी और सीमांत में बहस होने लगी । एक साल के गोलू को अपने पति के पास छोड़कर मैं अपनी मां के घर रहने लगी । 4 साल तक सीमांत ने मेरा इंतजार किया । कई बार मुझे लेने भी आए । लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही । अंतत: तलाक एक आखरी रास्ता था । हम दोनों की आजादी का । मुझे आजादी चाहिए थी और वही हुआ । आगे की पढ़ाई खत्म करके मैं नौकरी करने लगी थी । अब और अधिक आज़ादी थी ।

इस शहर से उसे शहर घूमते हुए वक्त गुजर रहा था । एकएक कर मेरे मातापिता इस दुनिया से चले गए । अब मेरे पास वक्त भी था, पैसा भी, मैं सफल भी थी, फिर भी मैं भीखारी थी और वक्त……. वक्त के साथ में चल ना सकी, वक्त मुझे छोड़ कर आगे निकल गया । अब चारों तरफ पसरा हुआ अकेलापन । इस अकेलेपन को मैंने ढलती उम्र में महसूस किया । लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी ।

आज जब मुझसे कहा गया , “ये है आशीष, आशीष देव” तो मुझे लगा, “हां यही मेरा बेटा है, मैं देखते ही समझ गई, यही मेरा बेटा है । तब का गोलू आज बड़ा होकर आशीष बन गया है । बिल्कुल सीमांत वही रंग, वही रूप, बाल, आंख, नाक सब वैसे ही । लेकिन यह सीमांत का दूसरा बेटा भी तो हो सकता है, दूसरी पत्नी से । नहीं… नहीं, यह मेरा ही बेटा है । आज पहली बार उसे देखकर मेरी ममता ने जोर मारी है, आज मुझे लग रहा है कि मैं अपना कलेजा फड़कर उसमें अपने बेटे को समा लूं, उसे आंचल में छुपा लूं । लेकिन नहीं, अब ऐसा नहीं हो सकता, वह वक्त गुजर चुका है । मैने जानबूझ कर रेत की तरफ फिसलने दिया है, उस वक्त को । क्या वह पहचानता होगा मुझे ? नहीं वह नहीं पहचानता होगा । जब उसने मुझे आखरी बार देखा था, तब वो महज। एक साल का था । उसने ठीक से आंखें भी नहीं खोली थी । उसने मेरे दूध का स्वाद भी नहीं जाना । उसने मेरे आंचल में ममता की छांव को नहीं जाना । वह कैसे पहचानेगा मुझे । आज मेरा मन ‘मां’ शब्द सुनने को ललायित है । वह नहीं बुलाएगा । वह ‘मां’ कहकर नहीं बुलाएगा । कभी नहीं बुलाएगा मुझे ।

Smita Gupta

Assi. prof.(Hindi)
M. Ed. , Hindi Patrkarita
smita78gupta@gmail.com

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