प्रेम की मौन अभिव्यक्ति
ओ गंडक !
ओ नारायणी नदी !
अपनी गोद में तूने शालिग्राम को लिटा रखा है
अपने सीने से लगा रखा है श्रीहरि विष्णु को
क्या तुमने अपने किनारों से
महुआ और आम के पेड़ों से
तटबंध पर उगे काँश के झाड़ों से
अपने प्रीतम के प्रति
अपनी प्रीत प्रकट की है कभी ?
मैं भी तुम्हारे तट पर उनसे न कह सकी
कि मेरे मन में बसी है तुम्हारी छवि
कि मेरे हृदय में अंकुरित है तुम्हारा प्रेम – बीज
मेरा मन बहता रहा अपने ही आवेग में
मैं फँसी रही प्रेम और दोस्ती के अंतर्द्वंद्व में
मैंने प्रेम को अभिव्यंजित करने वाले गुलमोहर से
दोस्ती के प्रतीक अमलतास से पूछा-
मेरे हृदयाकाश में उगा चांद
मेरे मन में खिला इंद्रधनुष का रंग
प्रीत का है या मित्रता का ?
एक स्त्री मन को तो जानती हो तुम
तो तुम्हीं बताओ गंडक
क्या अपने मुख से यह कहना जरूरी है
कि प्रीतम तुमसे अनंत प्यार है, असीम अनुराग है
तुम भी तो कल-कल करती गाती हो
प्रेम के मद में इतराती हो, इठलाती हो
फिर भी अपने प्यार को छुपाती हो
इस जग वालों की ओर से फेंके गए
कचरे , खर- पतवार, राख, गंदगी
अपने दामन पर लेकर
तुम प्रीतम का दामन बचाती हो
धन्य हो तुम
धन्य है तुम्हारी प्रीत
ओ गंडक !
तुम सदैव रही मौन
अपने दामन में प्यार समेटे
शनैः शनैः अविरल बहती रही
शीतल , निर्मल , शान्त!
फिर मैं क्यों करूँ अपनी प्रीत का प्रदर्शन
क्या मेरे मन में अविरल बहने वाली प्रीत
प्रियतम के हृदय में अभिव्यक्त नहीं होगी?
क्या प्रेम की मौन अभिव्यक्ति
प्रेम को प्रगाढ़ता नहीं देगी ?
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✍️ स्मिता गुप्ता

Smita Gupta
Assi. prof.(Hindi)
M. Ed. , Hindi Patrkarita
smita78gupta@gmail.com