अंधेरा

जहां तक नज़र जाती है
जहां तक मंजर दिखता है
वहां तक अंधेरा ही अंधेरा है
मगर यह घना अंधेरा
मेरे महबूब की जुल्फों की छांव तो कत्तई नहीं है
क्योंकि इसकी फ़िज़ा में वो नशीली खुशबू नहीं है
जो मेरी सांसों में घुलकर
मेरी रगों में उतरकर
मुझे विवश कर देती है
मोहब्बत का गीत गाने के लिए
झूमने के लिए, नाचने के लिए
उफ्फ !
जहां तक नज़र जाती है
वहां तक अंधेरा ही अंधेरा है
गलियों में खामोशी है
सड़कों पर सन्नाटा है
हर चेहरे पर ख़ौफ़ तारी है
और तो और
मंदिरों में देवताओं के होंठों पर भी जमी हुई है बर्फ
ओ स्वर्ग लोक की अप्सराओं !
कहां हो तुम ?
आओ धरती पर आओ
और अपने गर्म चुंबन से
देवताओं के होंठों पर जमी बर्फ को पिघला दो
ऐ देवताओं !
आखिर कब तलक बुत बने रहोगे ?
आखिर कब तलक चुप्पी साधे रहोगे ?
आखिर कब तलक मंदिरों में बंदी बने रहोगे ?
आखिर कब तलक शुंभ- निशुंभ का अन्याय सहोगे ?
उठो देवताओं उठो !
जन- जन का ताप हरो
जन- जन का संत्रास हरो
उलगुलान करो, हुड़गुड़ान करो
दैत्य शुंभ- निशुंभ का नाश करो

कुमार बिंदु