अंधेरा
एक सन्नाटा
एक अंधेरा
ना जाने कब से पीछा करता हुआ
मेरे अंतस तक आ पहुंचा है
मेरा अंतर्मन व्याकुल है
हर पल अंधेरे के फांस से निकलने के लिए
उजास के क्षितिज तक पहुंचने के लिए
स्वतंत्रता का गीत गुनगुनाने के लिए
लेकिन यह सन्नाटा जकड़े हुए है मुझे
अजगर की तरह निगल रहा है शनैः शनैः मुझे
मेरा दम घुंट रहा है
थमने लगी है धड़कन
बुझने लगी है नज़र
उफ्फ ! यह अंधेरा मेरे अस्तित्व पर छा रहा है
ऐसे में किसे पुकारूं
जो सूर्य ना उगा सके तो क्या
कम से कम एक दीया तो जलाए
रात के ढलने तक
नये सूर्य के उगने तक
◆ स्मिता गुप्ता
गाजियाबाद, यूपी