मधुर स्मृतियाँ अनायास ही कभी-कभी चेहरे पर मुस्कान ला देती है। एक सुखद एहसास करा देती हैं, लेकिन क्या हो जब वो मधुर-स्मृतियाँ अचानक किसी दिन दुःखद स्मृति बन जाए, जो किसी को स्वप्नों की दुनिया से हकीकत की धरती पर पटक जाए, छिन्न-भिन्न हो जाए।

उस समय मेरी की आयु करीब बारह तेरह साल रही होगी, एक दिन अचानक उसे बहुत दिनो बाद देखकर मेरा मन ख़ुशी से उछल गया। मेरी तरह बाकी बच्चो को भी  उसका इन्तजार बहुत दिनों से था। उसे देख कर लगा कि सबका  इन्तज़ार ख़तम  होने ही वाला है । मै बहुत ही उत्सुकता से उसके अगल-बगल देखने लगी कि कही से मुझे उसकी वो बहँगी दिया जाए जिसपर वो अपने सारे खिलौनों को लटकाए रहता था।

लेकिन निराशा ही हाथ लगी। थोड़े  अफसोस के बाद जब मेरी नज़र उस पर पड़ी तो मै अवाक् रह गयी उस भले-मानुष की शक्ल पहचानी नही जा रही थी। ऐसा लग रह था मानो कितने दिनो से बीमार है। वे बे सलीके  कपड़े, बेतरतीब बिखरे बाल जिसमे मनो धूल पड़ी हुई हो, चेहरा सर्द पीला और गले में पड़े  गमछे से ‘कभी-कभी वह अपने चेहरे को पोछता था, मुझे लगा जैसे उसकी आँखो में नमी थीं। उसके पास बैठी मेरी दादी भी काफी चिन्तित और उदास लग रहीं थीं। वह रुक रुक थोड़ी देर बाद उसे ढाढ़स भी दे रही थीं। 

“क्या हुआ दादी इनको”  मेरे पूछने पर उन्होने मुझे वहाँ से टालने के लिए आँखो और हाथों के इशारे से जाने के लिए कह।  ये जानने के लिए मैं बेचैन थी लेकिन ‘फिर भी वहाँ से हटकर थोड़ी दूर जाकर बैठ गयी। लेकिन मेरी नजरे उसकी ही तरफ थी। अचानक ही आँखो मे उसकी पुरानी छवि तैर गयीं।

उसकी उम्र उस समय करीब साठ साल या उसके आस-पास रही होगी। अल सुबह उसकी हॉक की आवाज हम बच्चो के सुसुप्त मस्तिष्क मे जो चेतना का प्रवाह करती कि हमारे कान खड़े  हो जाते कि वह किस-दिशा से आ  रहा है। और हमारी . उत्सुकता की वजह थे, वो रंग-बिरंगी ढेरो चिडियों वाले खिलौनें। रंगत मे  वो काले खिलौने चीनी – मिट्टी के बने होते थे, लेकिन उनकी चमक इतनी थी कि वो  काँच का आभास कराते थे।

बूढ़ा  उन खिलौनो को साँचे मे बनाता था और उसकी पत्नी उनको विभिन्न प्रकार के रंगो और कंचो  से सजाती थी। उन पर गुलाबी पंख  और कलगी लगाती थी जिससे वो खिलौने सजीव प्रतीत होते और धागे की मदद से सारी  चि डियो को एक बहँगी  मे लटका देतीं जिसे वो बुढा अपने कन्धो पर रखकर घूम-घूम कर बेचता और जोर से हॉक लगाता “लालमुनि – लालमुनि ले लो । 

लालमुनि उसके खिलौनो के नाम थें। 

उन पति-पत्नी को कोई संतान नहीं थी, लेकिन वो एक दूसरे को इतने पूर्ण करते कि किसी तीसरे की कमीं उन्हें कभी- खली नहीं। बुढ़ा झक्क सफेद कुरता और घुटने ‘ तक चुन्नटदार धोती  पहन कर अपने, बालों को सलीके से तेल लगाकर व कंघी  कर, मुँह में गुड़ डालकर निकलता और सामने से बुढ़िया जल्दी से आकर उसके माथेपर  पगड़ी पहना जाती तो मानो वह निहाल हो उठता चेहरे पर दमकती मुस्कान लेकर वह बहगी उठाता और बाजार मे निकल जात। 

 अचानक दादी  के खाँसने से मेरी तन्द्रा टुटी और देखा कि बूढ़ा वहाँ से जा रहा है।  मुहसे रहा नहीं गया जल्दी से मै दादी से पूछ बैठी “क्या हुआ दादी बूढ़े  को, वह ऐसा क्यो लग रहा है, रो क्योँ रहा है, वह आज खिलौने क्यो नही बेचने आया” 

दादी ने मेरी उत्सुकता को शांत करना चाहा, लेकिन वो भी  इतनी उदास थीं कि बोलने मे कुछ समय लगाया। फिर बोली “हाँ बेटा, वो अब कभी खिलौने बेचने नही आएग। 

बोलता है जब लालमुनि ही नहीं रही तब किसके लिए ये सब करूँगा सहुवाइन तब पता चला कि उसने आपने  खिलौनों के नाम अपनी पत्नी के नाम पर रखा हुआ था। 

मेरे मन में एक अजीब जी निः स्तब्धता छा गयी।