कोई खिड़की तो खुले
दूर तलक अंधेरा ही अंधेरा है
सन्नाटा ही सन्नाटा है
ना हवा की गुनगुनाहट है
ना पत्तों की सरसराहट
ना सांसों की गरमाहट
ना जुल्फों की शोख़ शरारत
काश !
ऐसे खुश्क मौसम में
अधूरा ही सही
मद्धिम ही सही
क्षितिज पर चांद उगे तो सही
मेरे महबूब के हसीं पांवों के निशान मिले तो सही
ऐसा हो तो मचल उठे प्यासा समंदर
धरती से आकाश तक उठे बवंडर
फिर हवा मस्ती में झूम के लहराए
जुल्फें खुल के कांधे पे बिखर जाए
प्यार की फस्ल जवां दिलों में लहलहाए
उठो !
जागो !
ऐ प्यार की फस्ल बोने वालों
दशरथ मांझी के नक़्श- ए- क़दम पे चलने वालों
कि तुम्हारे हसीं चांद को
अमावस की रात ने बंदी बना रखा है
उसे स्याह जंजीरों में जकड़ रखा है
तुम मुस्कुराओ कि अमावस की यह रात ढले
तुम गुनगुनाओ कि बंद दीवार में कोई खिड़की खुले