सनातन है प्रेम
सनातन है प्रेम रोग
यह रोग भी अजीब है
मां की कोख से ही घुल जाता है
हमारे शरीर के रक्त में
यह प्रेम रोग
ज्यों- ज्यों हमारा तन
ज्यों-ज्यों हमारा मन
जवान होता है तो यह प्रेम रोग
बलवान और असाध्य होता जाता है
जीवन के सोलहवें वसंत में
यह प्रेम रोग गजब गुल खिलाता है
हर माह में वसंत ही दिखाता है
ये प्रेम रोग
हर शाम आस का दीया जला कर
दिवाली मनाता है
ये प्रेम रोग
इस रोग में किसी वैद्य की दवा
संत- महात्मा की दुआ
बड़े से बड़े ओझा- गुनी का टोना-टोटका, तंत्र मंत्र
कुछ भी काम नहीं आता है
हर प्रयास विफल हो जाता है
हर प्रयास असफल हो जाता है
ऐसा सबल होता है प्रेम रोग
जो दिल से दिमाग तक
जो मन से तन तक
हरेक अंग- प्रत्यंग तक छा जाता है
यह हमें जग से बेगाना बनाता है
यह हमें रब का नज़राना लगता है