प्यार का मौसम वसंत और वेलेंटाइन
वसंत ऋतु प्रकृति के पुनर्यौवन का मौसम है। ऐसा लगता है, प्रकृति पर सोलहवां साल का जादू छा गया हो। पुराने पत्ते झर जाते हैं। नई कोमल पत्तियां उग आती हैं। पूरी प्रकृति, पेड़- पौधे, पशु- पंछी और मनुष्य के तन- मन में एक नवीन उल्लास, उमंग, तरंग दिखने लगती है। हवा भी मदमस्त हो उठती है। धरा से धूल उठाकर सबके माथे पर डालने लगती है। बौरा उठती है हवा। कविवर केदारनाथ अग्रवाल ने वसंती हवा का बयान कुछ यूं किया है –
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
सुनो बात मेरी –
अनोखी हवा हूँ
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला हूं
जिधर चाहती हूं
उधर घूमती हूं
मुसाफिर अजीब हूं
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
बसंती हवाहवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।सुनो बात मेरी –
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं –
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में ‘कू’,
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची –
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।
आइए, अब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की दृष्टि से वसंत ऋतु को देखें।
प्रात जगाता शिशु वसंत को नव गुलाब दे-दे ताली;
तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।
सुंदरता को जगी देखकर जी करता मैं भी कुछ गाऊँ;
मैं भी आज प्रकृति-पूजन में निज कविता के दीप जलाऊँ।
ठोकर मार भाग्य को फोड़ें, जड़ जीवन तजकर उड़ जाऊँ;
उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊँ।
स्वप्न-बीच जो कुछ सुंदर हो, उसे सत्य में व्याप्त करूँ,
और सत्य-तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ।
वहीं, आदिवासी जीवन के चितेरे कवि अनुज लुगुन ने वसंत को एक दूसरी दृष्टि से देखा है। वह वसंत के बारे में अपनी कविता में कहते हैं –
वसंत के बारे में कविता लिखने के लिए
एक कवि भँवरे की सवारी पर चढ़ा
और वह धम्म से गिर पड़ा
एक कवि अपनी प्रेमिका की गोद में लेट कर
मौसम का स्वाद ले रहा था
और उसकी कविता स्वादहीन हो गई
उसकी कविता के पात्र और चरित्र मरे हुए पाए गए
उसकी भाषा जिसके माध्यम से वह
सबसे अच्छी कविता लिखने का दावा करता था
उसकी ज़ुबान को लकवा हो गया
वसंत के बारे में कविता लिखने से डरता हूँ कि
कहीं कोई भँवरा मेरे गीतों पर रीझ न जाए
पपीहे भूल न जाएँ
बाज़ के हमलों से बचने,
सबसे बुरे समय में
सबसे ख़ुशनुमा
और रंगों से सराबोर मौसम पर
कविता लिखते हुए डरता हूँ
अपनी भाषा और शब्दों के दिवालिया हो जाने से
वसंत के बारे में
कविता लिखने से पहले
अपने बारे में सोचता हूँ
और पाता हूँ अपनी बहन को
बंदूक़ की नोंक से आत्मा के ज़ख़्म सीते हुए
उसके पास ही होती है एक उदास और ठहरी हुई नदी
जिसके आँसुओं में जलमग्न होते हैं
हरवैये बैल और मुर्ग़ियों के अंडे
मैं सुनता हूँ
अपने बच्चों और मवेशियों की डूबती हुई चीख़
और वहीं देखता हूँ
अपने ही देश के दूसरे हिस्से के नागरिकों को
पिकनिक मनाते
जश्न मनाते
और फ़ोटो खिंचवाते हुए
तब मेरी धरती और मेरे लोगों का ख़ून
मेरी क़लम की नीब से बहने लगता हैं
मैं विद्रोह करता हुआ
पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँच कर
पेड़ों से कहता हूँ विदा करो पतझड़ को
अब और देर नहीं
ले आओ मेरी माँ की आँखों में हँसी
पेड़ मेरी बात को ग़ौर से सुनते हैं
और ले आते हैं अपनी नई डालियों पर
छोटी चिड़ियों और फूलों के गीत
जंगल में घुलने लगती है महुवाई गंध
गिलहरी नृत्य करते हुए
नेवता देते हैं पंडुकों को भी
लेकिन पंडुक संकोचवश केवल गीत ही गा पाते हैं,
तब भी मैं लिख नहीं पाता हूँ
उनकी प्रशंसा में कोई कविता
बस उन्हें शुक्रिया कहता हूँ कि उनके बीच
अब भी हमारी पहचान बाक़ी है
और वे हमें हमारी भाषा से पहचानते हैं
वसंत के देश में
वसंत के दिनों में
वसंत के बारे में कविता न लिखना अपराध है
जैसे किसी देश में रहते हुए
उस देश के राजा के मिज़ाज की कविता न लिखना
और तब मैं कवि नहीं अपराधी होता हूँ
जो बूढ़ी माँ की आँखों में डूबते
अपने गाँव को बचाने के लिए
समुद्र की पागल लहरों से टकरा जाता हूँ
वसंत के बारे में कविता लिखने बैठा मैं
वसंत के बारे में नहीं
अपने बारे में लिखता हूँ
और कविता के शब्द जेल की अँधेरी कोठरियों को तोड़ते हैं
उसके अंदर क़ैद पतझड़ को विदा करने के लिए।
हिंदी के एक अन्य वरिष्ठ कवि कुमार बिंदु ने अपनी एक प्रेम कविता में प्रेयसी और वसंत का संबंध उजागर किया है –
तुम आए
तो तुम्हारे संग- संग
आया वसंत
तुम मिले
तो वसंत से हुआ मेरा प्रथम साक्षात्कार
तुम में वसंत मिला
वसंत में तुम मिले
मेरे मन के उपवन में
विविध रंग के फूल खिले
तुम गए
तो वसंत भी गया
मन के उपवन में खिले फूल झर गए
अब पतझड़ है
मन के उपवन में उग आया झाड़
वसंत ऋतु का मौसम लोकजीवन की दृष्टि से फागुन और चैत का माह होता है। फागुन में ही रंगों का त्योहार फगुआ ( होली ) मनाया जाता है। वसंत पंचमी से फगुआ के गीत गांव- कस्बों में गाये जाने लगते हैं। आइए, फगुआ के गीतों में हम जीवन के कुछ रंगों को देखें। फागुन में उम्र भेद नहीं रह जाता है। गांव की बहुएं उम्र दराज लोगों पर रंग से सराबोर कर देती हैं ।
भर फागुन
भर फागुन बुढ़वा देवर लागे
भर फागुन
फागुन में घर में गौना -ब्याह करके आयी नई नवेली बहू आंगन में सिलवट पर हल्दी पीस रही है। इसका सजीव चित्र एक पारंपरिक फगुआ गीत में उकेरा गया है।
गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसेली हरदिया
ससरांव के हवे रामा
सिल हो सिलवटिया
पटना के हरदी पुरान
अंगना में पीसेली हरदिया
गोरिया करी के सिंगार….
एक अन्य गीत में प्रणय काल दीर्घ होने से नायिका की आंखें नींद से भर चुकी है। नहीं सोने से नायिका की आंखें लाल हो चुकी हैं। वह कहती है –
अंखियां भइले लाल
अब तनी सुते द बलमुआ
एक नींद सुते द बलमुआ
फगुआ का मादक रंग सिर्फ़ मनुष्यों पर नहीं देवी देवता पर भी चढ़ जाता है, क्योंकि वह मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैं। भोजपुरी के फगुआ गीतों में इसकी बानगी देखिए।
होरी खेलत रघुवीर अवध में
होरी खेलत रघुवीर
राम के भीगेला पीत पगरिया
सीता के भीगेला हो चीर
होरी खेलत रघुवीर..
राम- सीता ही नहीं राधा और कृष्ण भी होरी खेल रहे हैं।
रसिया घनश्याम
होरी खेले से राधिका से
राधिका से हो सब गोपियन से
होरी खेलत घनश्याम
इत से निकले नवल राधिका
उत ते कुंवर कन्हाई
होरी खेलन राधिका से ….
वसंत ऋतु के इस मादक मौसम में अब वैलेंटाइन डे मनाने की परंपरा भी शनैः शनैः जड़ जमाने लगी है। सात से चौदह फरवरी तक वैलेंटाइन डे मनाया जाता है। सात फरवरी को प्रेमी अपनी प्रेयसी को गुलाब का फूल देकर अपनी मोहब्बत का इजहार करता है। आठ को प्रपोज, नौ को चॉकलेट, दस को टेडी दिया जाता है। ग्यारह को प्रेमी युगल प्रॉमिस और बारह को आलिंगनबद्ध होते हैं। तेरह को चुंबन के बाद चौदह फरवरी को वैलेंटाइन डे का समापन प्रेमी युगल जीवन साथी बनकर करते हैं। कहा जाता है कि यूरोपीय संत वैलेंटाइन ने प्रेमी युगल की शादी करायी थी, इसीलिए पूरे यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाने की परंपरा शुरू हो गई। यूं अभी तक भारत में वैलेंटाइन डे की परंपरा जड़ नहीं जमा सकी है। फरवरी से अप्रैल तक वसंत का मौसम रहता है। प्रकृति के पुनर्यौवन के इस मौसम में सर्वत्र नई उमंग, नई तरंग और नवीन उल्लास छा जाता है। आइए, हमलोग भी वसंतोत्सव मनाएं। जीवन को सरस और रंगों से सराबोर करें।

Smita Gupta
Assi. prof.(Hindi)
M. Ed. , Hindi Patrkarita
smita78gupta@gmail.com