भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण से मुलाकात

-कुमार बिंदु

मैं अपने कमरे में आंखें बंद करके लेटा हुआ था। मन में तरह – तरह के ख्याल आ रहे थे। तभी ऐसा लगा, जैसे कमरे में कोई आया। मैंने आंखें खोली, तो सामने श्रीराम नज़र आए। मैंने शिष्टाचार के तहत उनको प्रणाम किया, लेकिन वो चुप रहे। आशीर्वाद नहीं दिए। मैंने कहा- मेरे अभिवादन पर आप मौन रहे। क्या बात है, आप मुझसे खफ़ा हैं क्या ? तब श्रीराम बोले- मैं तुमको चेतावनी देने आया हूं कि तुम्हारे पाप का घड़ा अब भरने वाला है। मैंने आश्चर्य से पूछा- लेकिन, मैं तो संगीन नहीं हसीन गुनाह करता हूं। फिर कैसे मेरे पाप का घड़ा भरने को है ? मेरा यह कथन सुनकर श्रीराम विस्मित हो उठे। उन्होंने पूछा- ये हसीन गुनाह क्या होता है ? उनके जिज्ञासा भरे इस प्रश्न को सुनकर मुझे रफी का गाया एक गीत याद आया- अपने रूख़ पर निगाह करने दो, खूबसूरत गुनाह करने दो। तब मैंने कहा- याद कीजिए, आप दोनों भाई जनकपुर गए थे। आप दोनों भाई गुरू की आज्ञा से राजा जनक की फुलवारी घूमने गए थे। उसी समय सीताजी भी अपनी सहेलियों के साथ गौरी पूजन करने पहुंची। आपकी सीताजी से आंखें चार हुईं। आप अपलक सीताजी के रूप-सौंदर्य को देखते रहे। इसे ही हसीन गुनाह कहते हैं। यह सुनकर श्रीराम मुस्काए। फिर मैंने उनको संगीन गुनाह के बारे में बताया कि आपके साथ सीताजी राजमहल का सुख त्याग करके वन- वन भटकीं। अनेक दुख-कष्ट सहीं, लेकिन आपने उनको झूठे लांछन लगाने पर गर्भवती अवस्था में परित्याग कर दिया। राजमहल से जंगल में भेज दिया। आपको पति- धर्म का पालन करते हुए राजसत्ता भाई भरत को सौंपकर सीताजी के साथ वन गमन कर जाना चाहिए था, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। आपने पत्नी के साथ-साथ सीताजी की कोख में पल रहे अपने पुत्र का भी परित्याग किया था। आपने पति और पिता धर्म का पालन नहीं किया। आप सत्ता सुख के मोह में फंसकर राजधर्म की आड में यह अपराध कर गए। तो यह हुआ संगीन गुनाह ।

मेरी बातें सुनकर प्रभु थोड़ी देर तक मौन रहे। उसके बाद बोले- तुमको धर्म और अध्यात्म का ज्ञान नहीं है। देखो, स्त्री माया है। कबीर के शब्दों में माया महाठगिनी नैना झमकावे। इस माया को जो छोड़ देता है, वही ज्ञानी कहलाता है। जैसे महात्मा बुद्ध, संत तुलसीदास, आदि शंकराचार्य और वर्तमान में नरेन्द्र मोदी। श्रीराम ने यह भी कहा- मनुष्य को माया से मुक्त होने पर हर प्रकार के दुखों से छुटकारा मिल जाता है। वह ब्रह्म ज्ञानी हो जाता है। यह कहकर मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोले- अगर मैं सीता का परित्याग नहीं करता तो मर्यादा पुरुषोत्तम और भगवान श्रीराम कैसे कहलाता ? फिर धर्म सत्ता पर काबिज शक्तियां मुझे इन उपाधियों से विभूषित नहीं करतीं।
आश्चर्य रूप से तभी श्रीकृष्ण आते दिखाई दिए। तब श्रीराम शीघ्रता से कूच कर गए। श्रीकृष्ण आए, तो मैंने उनका यथोचित अभिवादन किया। उन्होंने अपनी मोहक मुस्कान के साथ मुझे सदैव प्रसन्न रहने का आशीष दिया और पूछा- ये श्रीराम क्या कह रहे थे ? मैंने सारी बातें उनको बता दी। श्रीकृष्ण ने कहा- तुम कदापि श्रीराम की शिक्षा पर अमल नहीं करना। श्रीराम बारह कला के अवतार और मैं सोलह कलाओं से विभूषित हूं। पूर्णावतार हूं। राम का अवतार अधूरा, जीवन अधूरा और ज्ञान भी अधूरा है। स्त्री माया नहीं है। उसका परित्याग नहीं करना चाहिए। स्त्री को मां, बहन, बेटी, पत्नी और प्रेयसी सहित किसी भी रूप में उससे प्रेम करना चाहिए। वह बोले- रूक्मिणी, सत्यभामा, जामवंती, कालिंदी सहित मेरी आठ पत्नियां थीं। मैंने किसी का परित्याग नहीं किया। सबसे प्रेम किया। मेरी दृष्टि में तो अपनी पत्नी ही नहीं दूसरे की पत्नी से भी प्रेम करना चाहिए। जैसे मैंने राधा से किया, वृंदा से किया।

श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर मेरे होंठों पर एक भेदभरी मुस्कान  आ गई। यह देखकर श्रीकृष्ण भी मुस्कराए। उन्होंने कहा- दूसरे की पत्नी से प्रेम करने की बात पर तुम मुस्कराए। यह एक नादान और अज्ञानी व्यक्ति की मुस्कुराहट है, क्योंकि तुम प्रेम के बारे में कुछ जानते नहीं हो। फिर सोलह कलाओं से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे समझाते हुए बोले- अगर तुम प्रेम को समझना चाहते हो, तो रामधारी सिंह दिनकर की रचना ‘ उर्वशी’  पढ़ो। उसने उर्वशी में लिखा है- “रक्त बुद्धि से अधिक बली है, देह प्रेम की जन्म भूमि है, लेकिन प्रेम नहीं रूधिर- त्वचा में।” यह कहकर जाने के लिए मुड़े, लेकिन उनके पांव थम गए। उन्होंने कहा- संत कबीर की यह वाणी भी याद रखना कि “प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय, राजा प्रजा जेहि रूचे सीस देई ले जाए।” शेष बातें फिर कभी।

कुमार बिंदु
कवि / पत्रकार
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