वसंतोत्सव

आजू- बाजू में खड़े
दो दरख़्तों ने थोड़ी- थोड़ी
अपनी- अपनी टहनी झुका दी
टहनी से टहनी मिली
पत्तियों से पत्तियां मिलीं
गलबहियां की, अधर चूमें
प्रेम में उन्मत्त दो देह कांपे
वसंती बयार के अंग- संग झूमें
चांदनी रात में रातभर गाए, नाचे
शोख, नटखट और शरारती हवा
धरा से मुट्ठीभर धूल उठायी
पत्तों के, टहनियों के, दरख़्तों के
हरे- भरे गालों पर मली
मोर नाचा, कोयल कूकी
जंगल में खूब धमाल मचा
वन्य प्रदेश में वसंतोत्सव मना
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उदास रात

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आकाश गंगा के नीले जल में तैर रहे हैं
अनगिनत श्वेत कमल
हवा थिरकते हुए गुनगुना रही है
फागुन के लोकगीत
पेड़ों की पत्तियां झूम रही हैं अनवरत
बिन थके, बिन रूके
मैं भी हवा के संग थिरकते हुए
गुनगुना चाह रहा हूं
मैं भी पेड़ों की पत्तियों के संग जी भरकर
झूमना चाह रहा हूं
आज इस फागुनी रात में
मगर तुम नहीं हो मेरे पास
मैं एकाकी हूं, नि:संग आज
प्रेम पर्वत पर
उफ्फ ! तुम बिन कितनी उदास हो गई यह रात
देखो प्रिये !
तुम बिन आकाश गंगा में उगे श्वेत कमल गलने लगे हैं
हवा भी गाते- गाते चीखने लगी है, चिल्लाने लगी है
उफ्फ ! तुम बिन बहुत उदास हो गई यह रात